Sunday, May 20, 2012
Saturday, March 24, 2012
बच्चे की हँसी
बच्चे की हँसी
बच्चे की हँसी
फैल गई धीरे-धीरे चारों तरफ़
जा पहुँची ऊँचे यूकेलिप्टस के पेड़ों की फुनगी तक
सूरज की पहली किरण सी
ठहर गई नईं कोपलों पर।
समुद्र के फेन सी
भिगो गई मन के सूखॆ तटों को,
बच्चे की हँसी
पहा्ड़ी झरने सी बहती कल-कल..
जा बैठी है बागों के कोनों में
बन कर सूरजमुखी के फूल,
रहने नहीं देती दुबका
कोई अँधेरा कोना कहीं भी
सूत के गोले सी
लुढ़्कती है यहाँ से वहाँ तक,
वामन सी उत्सुक है नाप लेने को
तीनों लोक।
ओ दुनिया के समझदारों,
बुद्दिजीवियों, व्यापारियों,
यह हँसी
बची रहे,
कोशिश करो,
आओ, अपनी एक टाँग पर घूमती ज़िंदगी से
कुछ क्षण निकालो
और निहारो इस मासूम हँसी को,
बचाओ इस हँसी को
दुनिया और अपनी आदमता से,
अपनी व्यापारी नज़र से,
अपने स्याह कामों की छाया से
बचाओ इस हँसी को,
बचाओ इस हँसी को॥
Thursday, January 19, 2012
भोर हो गई
..............................................
भोर हो गई
पग-पग बढ़ते-चढ़ते पथ पर
भीड़ हो गई,
कूका कहीं क्या काला कव्वा?
शीत पवन में पंख जम गये
बानी-बोली सभी खो गई
भोर हो गई ॥
आँखॊं के आगे
बस टिक-टिक घड़ी नाचती
ऊपर से नीचे से ऊपर
चीज़ें लिये संभाले, वह भागती
चेहरे का व्याकरण
कार का शीशा देखेगा
और पेट की भूख
दफ्तर जाने पर देखी जायेगी
यही सोचते करते एक उम्र हो गई,
भोर हो गई।
सूरज का आना या जाना
बस टी.वी. से जाना,
जीवन की आशा पर बिखरे
सर्दी का यह नीम अँधेरा
जाना-पहचाना,
एक घनी बिल्डिंग की बस्ती
कोने वाली मेज़
जीवन की धुरी हो गई
भोर हो गई,,
कागज़ पर टिप-टिप,
अँगुलियाँ नाचती, अक्षर बुनती
आँखॊं के आगे नीला स्क्रीन,
और समय का धागा उधड़े
मन के, घर के फँदे बुनते-बुनते
ऊन उम्र की खत्म हो गई...
भोर हो गई..........
----------------------------------------
Saturday, November 19, 2011
आज की नारी
तनाव की सिलवटों के बीच दबे
चेहरे को उसने उबारा
मँहगे प्रसाधन से चेहरे को सँवारा
सेल से खरीदे मँहगे कपड़ों से खुद को सजाया
ऊँची ऐड़ी पर अपने व्यक्तित्व को टिकाया
अब वह ९ से ५ की दुनिया के लिये तैयार थी
कार्पोरेट दुनिया पर यह उसकी पहली मार थी॥
घर के झमेलों को पर्स में ठूँसा
ओवरटेक करती कार को दिखाया घूँसा
कॉफी और सिगरेट के धुएँ को निगला
तब जाकर भीतर का दिन कुछ पिघला
बॉस का सामना करने को अब तैयार थी।
उस दिन पर यह उसकी दूसरी मार थी।
कॉफी और कोक और सिगरेट और चाय
दिन इनके चँगुल से कैसे बच पाये
फाइलों पर फाइलें, मीटिंग पर मीटिंग
स्थित-प्रज्ञ होने का उपाय कोई बताये
बेबीसिटर, डॉक्टर, स्कूल और क्लासें
ईमेल, चैट, टैक्स्ट दिन कैसे-कैसे हथियाये
अब बेपरवाह बैठी, एक जाम को तैयार थी
दिन के ढ़लने पर यह तीसरी मार थी॥
जितना सिखाया माँ ने, धर्म की पुस्तकों ने
उड़ा दिया दफ्तर के लाभ-हानि आँकड़ों ने
आँकड़ा लाभ का ऊपर उठता है
व्यक्ति उस आँकड़े के नीचे दबता है
आँकड़ा उठाने में वह समभागी है
हर सुबह वह आँकडों से लड़़ने को तैयार है
आज के समय पर यह उसकी तीखी मार है।
Tuesday, July 12, 2011
अम्माँ
अम्माँ
जून १३, २०११
सुबह से शुरु हो जाती है अम्माँ की बुड-बुड॥
महरी साफ नहीं करती बर्तन
बस फैलाती है पानी,
पानी, जिसकी बूँद-बूँद अनमोल है,
बाबा भरते हैं रोज़ सुबह चार बजे,
घर के उठने से पहले..
महरी नहीं समझती, न समझता है कोई और,
जूठन लगे बर्तन पर, कोई और नहीं बरसता
बस बरसती है अम्माँ।
सुबह से शुरु हो जाती है अम्माँ की बुड-बुड।
झाडू वाली झाडती नहीं धूल, केवल झाडती है वक्त
दो-चार कागज़, मोटा-मोटा कूडा निकालती है
छोड जाती है ढेरों धूल,
जो किसकिसाती है पैरों में, पैरों से बिस्तर तक
किसकिसाती हैं अम्मा की ज़ुबान, अम्मा का दिल, अम्मा की आँखें
सोने सी चमकती गॄहस्थी को अब यँ किसकिसाते हुए देख कर....
अब कोई काम नहीं करता, सिर्फ काम का नाटक करता है।
बाबा की जी किसकिसाता है अखबार पढ कर, समाचार सुन कर टी.वी. पर।
बहू-बच्चों का जी नहीं किसकिसाता
वे जानते हैं
अब वह ज़माना नहीं
ज़माना बदल गया है और वे भी इसी ज़माने के हिस्से हैं
पर क्या करें? बदलते नहीं बाबू जी,
बदलती नहीं अम्माँ
किसकिसाता रहता है उनका जी
और सुबह से शुरू हो जाती है उनकी बुड-बुड,
काम नहीं, काम करने के इस नाटक पर।
................................................................................
