Sunday, May 20, 2012

भीतर-भीतर



ऊपर-ऊपर सब कुछ चुप है
भीतर-भीतर कोई रोता।

चेहरे पर मुस्कान सजा कर
हास्य छुपाता छिपे रुदन को
अँधकार की बदली जैसे
छिपा रही है पिघले नभ को
मन में मेरे कैसी-कैसी
चिंताएँ और क्षोभ उबलते
किसे दिखाऊँ मैं इस सच को,
ऊपर—ऊपर सब कुछ चुप है..................
भीतर-भीतर कोई रोता......

कभी अकेला शब्द बोलते,
मन सागर सा फट सकता है
कभी बात पुरानी करते
इतिहासों में खो सकता है
जितनी धूल पड़े, ठीक है
एक बवंडर उठ सकता है
कैसे झेलें, कड़वे सच को,
ऊपर ऊपर सबकुछ चुप है................................
भीतर-भीतर कोई रोता.........

भीतर का भीतर ही रख कर
पानी संभव मोती हो ले
मन-मानस की सीढ़ी चढ़ते
शायद कोई अनहद पा ले
बिखरेगा तो विष ही होगा
संभव पीकर विष दुखों का
नीलंकंठ अंतर में हो ले,
ऊपर-ऊपर सब कुछ चुप है..............
भीतर-भीतर कोई रोता..........................................

1 comment:

Aman Kumar Tyagi said...

सारगर्भित रचना है। सरल भाषा और कहने का अन्दाज उससे भी सरल किन्तु अभिव्यक्ति गागर में सागर सी।