Sunday, June 16, 2013

तुम्हारे लिये: सपनों के फूल
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मैं बताना चाहती हूँ तुम्हें,
कि मुझ में
उग आयें हैं
इच्छाओं के पेड़,
जिनपर सपनों के फूल खिलते हैं,
मैं सूँघ नहीं पाती इन इच्छाओं को
जान नहीं पाती उनकी गंध,
पर सपनों के फूल
चमकीले हैं बहुत,
मन के रास्ते पर रौशनी देते हैं दूर तक.....................
मैं दे देना चाहती हूँ
अँजुरी भर कर ये फूल तुम्हें.
तुम्हारे सपनों के लिये..
कल जब ये सूखॆं
तो बोना तुम इन्हें
अपने मन की ज़मीन पर,
उगाना,
इच्छाओं के पेड़
सपनों के फूल
अपनी रौशनी के लिये॥

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Friday, July 6, 2012


शाम को......................

“आज देर हो गयी फिर नौकरी पर”
तुम कहती हो, अपराधी सी,
खड़ी हो थकी-माँदी...

मुँह बनाया मेरे पिता ने,
माँ का ताना
फैला है भोंहों से ज़बान तक,
बहन छेड़ती है मुझे
पर कहती वही है जो घर कह रहा है,

घर प्रतीक्षा कर रहा है मेरी प्रतिक्रिया की,
मेरी नज़र तुम्हें संभालती है
प्रतीक्षा करती है उस क्षण की जब हम
मिलेंगे घर से बच कर,
तब मैं तुम्हारे दिल की आग
बाहों में बाँध लूँगा
और तुम्हारे पसीने और आँसुओं को सोख लूँगा अपने शरीर में
ताकि घुल जायें वो सब धीरे-धीरे मेरे खून में
जो तुम रोज़ महसूस करती हो इस घर में
जो कभी मेरा था,
अब है केवल अतृप्त अपेक्षाओं का पता।

मुझे खुशी है कि तुम सिमट आती हो
मेरे सीने के घौंसले में रोज़ रात को
और मैं अपने पंख तौलता हूँ.
हर सुबह एक नयी उड़ान भरने के लिये तुम्हारी आँखों के आसमान में..॥

Sunday, May 20, 2012

भीतर-भीतर



ऊपर-ऊपर सब कुछ चुप है
भीतर-भीतर कोई रोता।

चेहरे पर मुस्कान सजा कर
हास्य छुपाता छिपे रुदन को
अँधकार की बदली जैसे
छिपा रही है पिघले नभ को
मन में मेरे कैसी-कैसी
चिंताएँ और क्षोभ उबलते
किसे दिखाऊँ मैं इस सच को,
ऊपर—ऊपर सब कुछ चुप है..................
भीतर-भीतर कोई रोता......

कभी अकेला शब्द बोलते,
मन सागर सा फट सकता है
कभी बात पुरानी करते
इतिहासों में खो सकता है
जितनी धूल पड़े, ठीक है
एक बवंडर उठ सकता है
कैसे झेलें, कड़वे सच को,
ऊपर ऊपर सबकुछ चुप है................................
भीतर-भीतर कोई रोता.........

भीतर का भीतर ही रख कर
पानी संभव मोती हो ले
मन-मानस की सीढ़ी चढ़ते
शायद कोई अनहद पा ले
बिखरेगा तो विष ही होगा
संभव पीकर विष दुखों का
नीलंकंठ अंतर में हो ले,
ऊपर-ऊपर सब कुछ चुप है..............
भीतर-भीतर कोई रोता..........................................

Saturday, March 24, 2012

बच्चे की हँसी


बच्चे की हँसी



बच्चे की हँसी
फैल गई धीरे-धीरे चारों तरफ़
जा पहुँची ऊँचे यूकेलिप्टस के पेड़ों की फुनगी तक
सूरज की पहली किरण सी
ठहर गई नईं कोपलों पर।

समुद्र के फेन सी
भिगो गई मन के सूखॆ तटों को,
बच्चे की हँसी
पहा्ड़ी झरने सी बहती कल-कल..
जा बैठी है बागों के कोनों में
बन कर सूरजमुखी के फूल,

रहने नहीं देती दुबका
कोई अँधेरा कोना कहीं भी
सूत के गोले सी
लुढ़्कती है यहाँ से वहाँ तक,
वामन सी उत्सुक है नाप लेने को
तीनों लोक।

ओ दुनिया के समझदारों,
बुद्दिजीवियों, व्यापारियों,
यह हँसी
बची रहे,
कोशिश करो,
आओ, अपनी एक टाँग पर घूमती ज़िंदगी से
कुछ  क्षण निकालो
और निहारो इस मासूम हँसी को,
बचाओ इस हँसी को
दुनिया और अपनी आदमता से,
अपनी व्यापारी नज़र से,
अपने स्याह कामों की छाया से
बचाओ इस हँसी को,
बचाओ इस हँसी को॥


Thursday, January 19, 2012


भोर हो गई
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भोर हो गई
पग-पग बढ़ते-चढ़ते पथ पर
भीड़ हो गई,
कूका कहीं क्या काला कव्वा?
शीत पवन में पंख जम गये
बानी-बोली सभी खो गई
भोर हो गई ॥


आँखॊं के आगे
बस टिक-टिक घड़ी नाचती
ऊपर से नीचे से ऊपर
चीज़ें लिये संभाले, वह भागती
चेहरे का व्याकरण
कार का शीशा देखेगा
और पेट की भूख
दफ्तर जाने पर देखी जायेगी
यही सोचते करते एक उम्र हो गई,
भोर हो गई।
सूरज का आना या जाना
बस टी.वी. से जाना,
जीवन की आशा पर बिखरे
सर्दी का यह नीम अँधेरा
जाना-पहचाना,
एक घनी बिल्डिंग की बस्ती
कोने वाली मेज़
जीवन की धुरी हो गई
भोर हो गई,,
कागज़ पर टिप-टिप,
अँगुलियाँ नाचती, अक्षर बुनती
आँखॊं के आगे नीला स्क्रीन,
और समय का धागा उधड़े
मन के, घर के फँदे बुनते-बुनते
ऊन उम्र की खत्म हो गई...
भोर हो गई..........

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भोर हो गई

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भोर हो गई

पग-पग बढ़ते-चढ़ते पथ पर

भीड़ हो गई,

कूका कहीं क्या काला कव्वा?

शीत पवन में पंख जम गये

बानी-बोली सभी खो गई

भोर हो गई ॥

आँखॊं के आगे

बस टिक-टिक घड़ी नाचती

ऊपर से नीचे से ऊपर

चीज़ें लिये संभाले, वह भागती

चेहरे का व्याकरण

कार का शीशा देखेगा

और पेट की भूख

दफ्तर जाने पर देखी जायेगी

यही सोचते करते एक उम्र हो गई,

भोर हो गई।

सूरज का आना या जाना

बस टी.वी. से जाना,

जीवन की आशा पर बिखरे

सर्दी का यह नीम अँधेरा

जाना-पहचाना,

एक घनी बिल्डिंग की बस्ती

कोने वाली मेज़

जीवन की धुरी हो गई

भोर हो गई,,

कागज़ पर टिप-टिप,

अँगुलियाँ नाचती, अक्षर बुनती

आँखॊं के आगे नीला स्क्रीन,

और समय का धागा उधड़े

मन के, घर के फँदे बुनते-बुनते

ऊन उम्र की खत्म हो गई...

भोर हो गई..........

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Saturday, November 19, 2011

आज की नारी

तनाव की सिलवटों के बीच दबे

चेहरे को उसने उबारा

मँहगे प्रसाधन से चेहरे को सँवारा

सेल से खरीदे मँहगे कपड़ों से खुद को सजाया

ऊँची ऐड़ी पर अपने व्यक्तित्व को टिकाया

अब वह ९ से ५ की दुनिया के लिये तैयार थी

कार्पोरेट दुनिया पर यह उसकी पहली मार थी॥

घर के झमेलों को पर्स में ठूँसा

ओवरटेक करती कार को दिखाया घूँसा

कॉफी और सिगरेट के धुएँ को निगला

तब जाकर भीतर का दिन कुछ पिघला

बॉस का सामना करने को अब तैयार थी।

उस दिन पर यह उसकी दूसरी मार थी।

कॉफी और कोक और सिगरेट और चाय

दिन इनके चँगुल से कैसे बच पाये

फाइलों पर फाइलें, मीटिंग पर मीटिंग

स्थित-प्रज्ञ होने का उपाय कोई बताये

बेबीसिटर, डॉक्टर, स्कूल और क्लासें

ईमेल, चैट, टैक्स्ट दिन कैसे-कैसे हथियाये

अब बेपरवाह बैठी, एक जाम को तैयार थी

दिन के ढ़लने पर यह तीसरी मार थी॥

जितना सिखाया माँ ने, धर्म की पुस्तकों ने

उड़ा दिया दफ्तर के लाभ-हानि आँकड़ों ने

आँकड़ा लाभ का ऊपर उठता है

व्यक्ति उस आँकड़े के नीचे दबता है

आँकड़ा उठाने में वह समभागी है

हर सुबह वह आँकडों से लड़़ने को तैयार है

आज के समय पर यह उसकी तीखी मार है।