Saturday, March 24, 2012

बच्चे की हँसी


बच्चे की हँसी



बच्चे की हँसी
फैल गई धीरे-धीरे चारों तरफ़
जा पहुँची ऊँचे यूकेलिप्टस के पेड़ों की फुनगी तक
सूरज की पहली किरण सी
ठहर गई नईं कोपलों पर।

समुद्र के फेन सी
भिगो गई मन के सूखॆ तटों को,
बच्चे की हँसी
पहा्ड़ी झरने सी बहती कल-कल..
जा बैठी है बागों के कोनों में
बन कर सूरजमुखी के फूल,

रहने नहीं देती दुबका
कोई अँधेरा कोना कहीं भी
सूत के गोले सी
लुढ़्कती है यहाँ से वहाँ तक,
वामन सी उत्सुक है नाप लेने को
तीनों लोक।

ओ दुनिया के समझदारों,
बुद्दिजीवियों, व्यापारियों,
यह हँसी
बची रहे,
कोशिश करो,
आओ, अपनी एक टाँग पर घूमती ज़िंदगी से
कुछ  क्षण निकालो
और निहारो इस मासूम हँसी को,
बचाओ इस हँसी को
दुनिया और अपनी आदमता से,
अपनी व्यापारी नज़र से,
अपने स्याह कामों की छाया से
बचाओ इस हँसी को,
बचाओ इस हँसी को॥


1 comment:

अमरेन्द्र: said...

शैलजा जी,
अच्छी कविता...बच्चे की हंसी में हमारी भी हंसी सम्मिलित हो जाये...यही कामना है..
सादर,
अमरेन्द्र