Saturday, November 19, 2011

आज की नारी

तनाव की सिलवटों के बीच दबे

चेहरे को उसने उबारा

मँहगे प्रसाधन से चेहरे को सँवारा

सेल से खरीदे मँहगे कपड़ों से खुद को सजाया

ऊँची ऐड़ी पर अपने व्यक्तित्व को टिकाया

अब वह ९ से ५ की दुनिया के लिये तैयार थी

कार्पोरेट दुनिया पर यह उसकी पहली मार थी॥

घर के झमेलों को पर्स में ठूँसा

ओवरटेक करती कार को दिखाया घूँसा

कॉफी और सिगरेट के धुएँ को निगला

तब जाकर भीतर का दिन कुछ पिघला

बॉस का सामना करने को अब तैयार थी।

उस दिन पर यह उसकी दूसरी मार थी।

कॉफी और कोक और सिगरेट और चाय

दिन इनके चँगुल से कैसे बच पाये

फाइलों पर फाइलें, मीटिंग पर मीटिंग

स्थित-प्रज्ञ होने का उपाय कोई बताये

बेबीसिटर, डॉक्टर, स्कूल और क्लासें

ईमेल, चैट, टैक्स्ट दिन कैसे-कैसे हथियाये

अब बेपरवाह बैठी, एक जाम को तैयार थी

दिन के ढ़लने पर यह तीसरी मार थी॥

जितना सिखाया माँ ने, धर्म की पुस्तकों ने

उड़ा दिया दफ्तर के लाभ-हानि आँकड़ों ने

आँकड़ा लाभ का ऊपर उठता है

व्यक्ति उस आँकड़े के नीचे दबता है

आँकड़ा उठाने में वह समभागी है

हर सुबह वह आँकडों से लड़़ने को तैयार है

आज के समय पर यह उसकी तीखी मार है।

Tuesday, July 12, 2011

अम्माँ

अम्माँ

जून १३, २०११

सुबह से शुरु हो जाती है अम्माँ की बुड-बुड॥

महरी साफ नहीं करती बर्तन

बस फैलाती है पानी,

पानी, जिसकी बूँद-बूँद अनमोल है,

बाबा भरते हैं रोज़ सुबह चार बजे,

घर के उठने से पहले..

महरी नहीं समझती, न समझता है कोई और,

जूठन लगे बर्तन पर, कोई और नहीं बरसता

बस बरसती है अम्माँ।

सुबह से शुरु हो जाती है अम्माँ की बुड-बुड।

झाडू वाली झाडती नहीं धूल, केवल झाडती है वक्त

दो-चार कागज़, मोटा-मोटा कूडा निकालती है

छोड जाती है ढेरों धूल,

जो किसकिसाती है पैरों में, पैरों से बिस्तर तक

किसकिसाती हैं अम्मा की ज़ुबान, अम्मा का दिल, अम्मा की आँखें

सोने सी चमकती गॄहस्थी को अब यँ किसकिसाते हुए देख कर....

अब कोई काम नहीं करता, सिर्फ काम का नाटक करता है।

बाबा की जी किसकिसाता है अखबार पढ कर, समाचार सुन कर टी.वी. पर।

बहू-बच्चों का जी नहीं किसकिसाता

वे जानते हैं

अब वह ज़माना नहीं

ज़माना बदल गया है और वे भी इसी ज़माने के हिस्से हैं

पर क्या करें? बदलते नहीं बाबू जी,

बदलती नहीं अम्माँ

किसकिसाता रहता है उनका जी

और सुबह से शुरू हो जाती है उनकी बुड-बुड,

काम नहीं, काम करने के इस नाटक पर।

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Thursday, June 23, 2011

अकेले तुम!!
डॉ. शैलजा सक्सेना

परेशान हूँ मैं तुम्हारे लिये
कितने नि:संग, अकेले हो
दुनिया की तमाम हलचल से हट कर
अकेले किनारे खड़े हो

बढ़्ते अपराध
बढ़ती मँहगाई
बढ़ता भ्रष्टाचार
बढ़ता देह-व्यापार
बढ़ते विदेशी कदम
अपने देश की धरती पर
हत्या, दुर्घटना, बाढ़, सूखा
किसी ने भी तो तुम्हें नहीं छुआ।

तुम हर सुबह अपना एक स्वार्थ ले कर पैदा होते हो
और हर रात एक स्वार्थ लिए मर जाते हो।

तुम्हारा न कोई इतिहास है
न भविष्य
केवल स्वार्थ है तुम्हारा हविष्य।
तुम्हारी न कोई सभ्यता है न संस्कृति
आखिर किस की हो तुम अनुकृति?
नहीं जानती.........
तुम्हारे लिये न कोई संबंध है न कोई सभ्यता
इसीलिये तुम्हे कभी कुछ नहीं व्यापता।
तुम्हारे लिये न कोई ईश्वर है न कोई वेद मंत्र
केवल एक स्वार्थ-तंत्र।
किसी का ऋण तुम्हें नहीं बाँधता
न देश का, न देव का, न पिता का न माता का।

एक ही संबंध
एक ही अर्थ तुम जानते हो
और अनेक सार्थकताओं से भरी इस दुनिया में
केवल स्वार्थ को अपना मानते हो।

परेशान हूँ मैं तुम्हारे लिये
क्योंकि अनाम हो कर भी तुम
बहुसंख्यक हो
सीमित हो कर भी विचरते हो
एक काल से दूसरे काल में
तमाशाई
परजीवी
तुम!!

परेशान हूँ मैं तुम्हारे लिये
कि तुम किसी कोमल भाव को
समझ नहीं पाओगे कभी भी
प्रेम के अनेक आयामों में से
एक भी नहीं छू पाओगे
भावना का कोई रंग उगाएगा नहीं
सीने में तुम्हारे संवेदना के इंद्रधनुष
और तुम
एक अजीब सा जीवन लेकर
अनाथ से मर जाओगे,

परेशान हूँ मैं तुम्हारे लिये।

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Monday, February 15, 2010

खुशफहमियाँ



बहुत सी खुश्फ़हमियाँ पाली थीं मैंने,
जब कभी भीड़ से गुजरी
स्वयँ को अलग पाया
मेरी विशिष्टताऒं ने जैसे मेरे चेहरे को
रंग दे दिया हो कुछ अलग ही
मेरे संघर्ष,
मेरी उपलब्धियाँ,
मेरी उदासियाँ,
मेरी हँसी,
जैसे कुछ अद्वितीय हो
जैसे मैं कुछ अधिक मनु्ष्य हूँ
शेष सब से,
अधिक संघर्षशील,
अधिक प्रसन्न,
अधिक गहरे उतरी हुई,
जैसे आकाशगंगा मे
चमकता एक तारा
इतरा उठे अपनी अनोखी दिपदिपाहट पर
जैसे कोई फूल उठे फूल
अपनी अतिरिक्त महक पर
घास का तिनका झूम उठे
अपने गहरे हरे रंग पर
ठीक वैसे..............
पर समय ने आँख खोल
दिखाया,
समाज ने
अनेको उदाहरणों से समझाया
कि अद्वितीय है हर व्यक्ति भीड़ मे,
विशिष्ट है अपनी सामान्यताओं मे
पैठा हुआ है गहरे
अपने मन और तन की अनुभूतियों मे,
समझ मे बड़ा है,
संघर्ष की दौड़ मे
सबके साथ बराबर ही खड़ा है,
प्रसन्न हूँ कि
मैं इन अद्वितीयों की भीड़ का एक हिस्सा हूँ
और हजारों कहानियों के बीच
एक मामूली सा किस्सा हूँ॥

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Wednesday, February 10, 2010

ज़माने की हवा

हसीनॊं की बस्ती में कोई दिलदार क्या जाए
जमाने की हवाऒं मे, वो खाली चिड़चिड़ाते हैं।

जुगनू रोशनी के यूँ तो चमचमाते हैं
कोई तो राज है जो अँधेरे बढ़ते जाते हैं।

नया है दौर, नयी हर बात इसकी है
कातिल ही बँधाने ढ़ाढ़स, बस्ती में आते हैं।

खड़े हैं छत पे, बयालीसवीं मंज़िल के
वो अक्सर हाल मेरा लेने यूँ ही आते हैं।

आज वो लौट आये हैं, सुबह जो भूलकर भागे
पुरानी आदतों से पर भला क्या बाज आते हैं।

वहाँ गोली चली, यहाँ तूफ़ान में घर बार उजड़े हैं
यही पढ़-पढ़ अखबार से हम मुँह चुराते हैं।

हमारे चाहने, कहने से कुछ नही बदला
सपन आँखॊ में भर, मगर हम बढ़ते जाते हैं।

Friday, January 1, 2010

नव वर्ष आपको हो मंगल

हो कृपा भगवती की हर पल
नव छंद ,गीत नव रच जायें
पृष्ठों पर जीवन विहँसे
जीवन में कविता खिल जाये

लिखा हुआ सब हो मंगल....
नव वर्ष...

जीवन के छोटे, अनगिन दुख
सुख का रहस्य समझा जायें
सपने अपने पा जाने को
दृढ़ हाथ उठें, नभ छू जायें

कर्म- योग हमारा हो मंगल
नव वर्ष.................

नव पीढ़ी के कर्म- धर्म
मंत्र सत्य का पा जाये
पुरुषार्थ करें अपना सार्थक
युग को दिशा दिला जायें

आनंद,शाँति और हो मंगल
नव वर्ष आपको हो मंगल....

शुभकामनाओं सहित
शैलजा

Wednesday, November 18, 2009

तुम...................................

तुम मेरे वाक्य के विराम चिन्ह हो,
पूर्ण करते हो मेरी अपूर्णता
और पूरा करने के लिये
मेरे अधूरे स्वप्नों को
तैयार करते हो वह ज़मीं जहाँ मैं
उगा सकूँ भविष्य के फूल
नये-पुराने पतियों से भिन्न हो
तुम मेरे वाक्य के विराम चिन्ह हो ॥

मैं और तुम
प्रेम के पेड़ की दो डाल
एक पत्ती हरी, एक पत्ती लाल
अपने-अपने रंग लिये खिलते हैं,
मेरी नासमझी पर मुस्कान भरी समझ हो
भिन्न होकर भी मुझसे अभिन्न हो
तुम मेरे वाक्य के विराम चिन्ह हो ॥

यह अनोखा प्यार अपना
वार कर एक उम्र पूरी
बुद्दि को न वार पाई,
भाव तो तुमको दिये
पर सोच अपनी दे न पाई
मान्यता देते मेरे "निज" को, मेरे शुभचिन्ह हो,
तुम मेरे वाक्य के विराम चिन्ह हो॥