लडाई समय के साथ
एक लडाई जारी है समय के साथ,
एक लडाई जारी है अपने साथ।
ठूँसती हूँ, भरती हूँ
कामों के थैलों को बस्ते में दिन के
छूटते हैं बाहर
रखे हर बार गिन के
हूँ परेशान, कि बस्ता क्यों छोटा?
या क्यों कमजोर मेरे कँधे?
एक लडाई जारी है अपने साथ
एक लडाई जारी है समय के साथ
सूरज की आँखों पर
बादल के बाल
दिन के सिकुडते बस्ते का कर के ख्याल
हो जाती हूँ दुखी
कैसे तो कामों के थैलों को ठूँस लूँ, बाँध लूँ
कि सीमित सी आयु में तीन लोक नाप लूँ
फिर-फिर उठती हूँ।
एक लडाई जारी है समय के साथ
एक लडाई जारी है अपने साथ।
असीमित हैं इच्छाएँ
सीमित हैं शक्ति
असीमित हैं भाव
सीमित अभिव्यक्ति
पूछती हूँ असीम से..
क्यों बना के ससीम,
अपना असीम मुझ में भर दिया
सीमित सी आयु और सीमित शक्ति ने बेबस सा कर दिया
इसमें कितना है् तुम्हारा किया और कितना है मेरा
कितना है मेरे हाथ, कितना माथ लिखा तेरा ?
बताओ कैसे तो होगा फैसला???
एक लडाई जारी है समय के साथ
एक लडाई जारी है अपने साथ
एक प्रश्न जारी है तुम्हारे साथ।
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9 comments:
वाह शैलजा!
कल सोचा तुमसे मुलाक़ात होगी...इंतज़ार किया।
ये word verification हटा लो।
ब्लॉग की दुनिया में आपका हार्दिक स्वागत है .आपके अनवरत लेखन के लिए मेरी शुभ कामनाएं ...
Blog ki ladai mein bhi shubhkaamnaon sahit swagat.
Sundar abhivyakti.Badhai.
Aap sab ke protsahan ke liye dhanywaad...asha hai aise hi utsah badhate rahenge..
sadar
shailja
ladai to zindagi hai tab tak jari rahegi. narayan narayan
शैलजा जी,
"लडाई समय के साथ" बहुत ही सामयिक और उत्कृष्ट कविता है।
सार्थक बिम्बों की मदद से कविता और भी रोचक और पठनीय हो गयी है।
सादर,
अमरेन्द्र
dhanywaad aap sab ka. sneh banaye rakhen
Shailja
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