अम्माँ
जून १३, २०११
सुबह से शुरु हो जाती है अम्माँ की बुड-बुड॥
महरी साफ नहीं करती बर्तन
बस फैलाती है पानी,
पानी, जिसकी बूँद-बूँद अनमोल है,
बाबा भरते हैं रोज़ सुबह चार बजे,
घर के उठने से पहले..
महरी नहीं समझती, न समझता है कोई और,
जूठन लगे बर्तन पर, कोई और नहीं बरसता
बस बरसती है अम्माँ।
सुबह से शुरु हो जाती है अम्माँ की बुड-बुड।
झाडू वाली झाडती नहीं धूल, केवल झाडती है वक्त
दो-चार कागज़, मोटा-मोटा कूडा निकालती है
छोड जाती है ढेरों धूल,
जो किसकिसाती है पैरों में, पैरों से बिस्तर तक
किसकिसाती हैं अम्मा की ज़ुबान, अम्मा का दिल, अम्मा की आँखें
सोने सी चमकती गॄहस्थी को अब यँ किसकिसाते हुए देख कर....
अब कोई काम नहीं करता, सिर्फ काम का नाटक करता है।
बाबा की जी किसकिसाता है अखबार पढ कर, समाचार सुन कर टी.वी. पर।
बहू-बच्चों का जी नहीं किसकिसाता
वे जानते हैं
अब वह ज़माना नहीं
ज़माना बदल गया है और वे भी इसी ज़माने के हिस्से हैं
पर क्या करें? बदलते नहीं बाबू जी,
बदलती नहीं अम्माँ
किसकिसाता रहता है उनका जी
और सुबह से शुरू हो जाती है उनकी बुड-बुड,
काम नहीं, काम करने के इस नाटक पर।
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3 comments:
एक अच्छी और सच्ची कविता !!
एक लंबे अंतराल के बाद आपका लिखा पढना हुआ - अच्छा लगा.
सादर,
अमरेन्द्र
कुछ बरसों पीछे चला गया..खैर, अब तो न अम्मा हैं..न उनकी बुड़ बुड़!!!
बहुत बढ़िया
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