हसीनॊं की बस्ती में कोई दिलदार क्या जाए
जमाने की हवाऒं मे, वो खाली चिड़चिड़ाते हैं।
जुगनू रोशनी के यूँ तो चमचमाते हैं
कोई तो राज है जो अँधेरे बढ़ते जाते हैं।
नया है दौर, नयी हर बात इसकी है
कातिल ही बँधाने ढ़ाढ़स, बस्ती में आते हैं।
खड़े हैं छत पे, बयालीसवीं मंज़िल के
वो अक्सर हाल मेरा लेने यूँ ही आते हैं।
आज वो लौट आये हैं, सुबह जो भूलकर भागे
पुरानी आदतों से पर भला क्या बाज आते हैं।
वहाँ गोली चली, यहाँ तूफ़ान में घर बार उजड़े हैं
यही पढ़-पढ़ अखबार से हम मुँह चुराते हैं।
हमारे चाहने, कहने से कुछ नही बदला
सपन आँखॊ में भर, मगर हम बढ़ते जाते हैं।
5 comments:
वहाँ गोली चली, यहाँ तूफ़ान में घर बार उजड़े हैं
यही पढ़-पढ़ अखबार से हम मुँह चुराते हैं।
-बेहतरीन रचना!
सांझेपल पर साझा की गईं ९९% काव्यकृतियों की चमत्कृति की धुरी प्राय: व्यंग्यात्मक ध्वनि चक्राधारित प्रतीत होती थी। तथाकथित अधुनातन अतुकांतकवियों का निराला की शैली की ध्वन्यात्मकता को समझे बिना ही छंदशास्त्र के पुरातन पंथ का अनुसरण न करने के पीछे बेतुके तर्कतीरों के लिये महाकवि निराला जैसे सिद्धसारस्वतों को तूणीर बना लेना प्रचलन में आ गया है। “जमाने की हवा”नामक सद्य संश्लिष्टा रचना में आपने काव्य के व्यंग्यात्मक ध्वनन के साथ साथ छंदशास्त्रीय अंत्योपान्त्यानुप्रासात्मक धुन का उत्कृष्ट प्रयोग कर हम जैसे पारम्परिक कवियों का उत्साह सौगुना कर दिया है।आपके सटीक व्यंगों की तीव्र तीक्ष्णता हृदय को आविद्ध सा कर जाती है।इस एक और उत्तम कृति के समस्त सुकृति समाज आपका चिर ऋणी रहेगा:-
हसीनॊं की बस्ती में कोई दिलदार क्या जाए
जमाने की हवाओं में, वो खाली चिड़चिड़ाते हैं।
आज वो लौट आये हैं, सुबह जो भूलकर भागे
पुरानी आदतों से पर भला क्या बाज आते हैं।
वहाँ गोली चली, यहाँ तूफ़ान में घर बार उजड़े हैं
यही पढ़-पढ़ अखबार से हम मुँह चुराते हैं।
नयी शैली की कविता पढने को मिली आपसे। विचार अच्छे लगे, खासकर -
जुगनू रोशनी के यूँ तो चमचमाते हैं
कोई तो राज है जो अँधेरे बढ़ते जाते हैं।
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हमारे चाहने, कहने से कुछ नही बदला
सपन आँखॊ में भर, मगर हम बढ़ते जाते हैं।
सादर,
अमरेन्द्र
आप सब की सराहना के लिये बहुत-बहुत धन्यवाद। संदीप जी की आलोचनात्मक पर बहुत सार्थक टिप्प्णी के लिये अतिरिक्त धन्यवाद। समस्त शब्दों के अर्थ को आत्मसात करने के लिये आपकी टिप्प्णी को दो बार पढ़ा..तुकांत और अतुकांत रचनाओं के स्वरूप और प्रभाव पर लंबे समय से बहस चल रही है..मुझे यह बात मह्त्त्वपूर्ण लग कर भी उतनी महत्त्वपूर्ण नहीं लगती जितनी कि यह बात कि दोनों प्रकार की कविता में कविता का त्तत्त्व है कि नहीं? अगर नहीं तो तुकांत हो या अतुकांत, वह कविता तो नहीं होगी...
सादर
व्यंग्य में शिष्टता का पुट ताज़ा हवा के झोंके की तरह लगा।
उत्तम रचना है!
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