छोटा दर्द- बडा दर्द...
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वह उसे बहुत प्यार करता था। जहाँ मौका मिलता, सटकर बैठ जाता, गोद में बैठने की जिद करता। उस दिन भी अपना होम वर्क करते -करते उसे जाने क्या जुंग चढी..
अपना गाल उसके गाल से सटा कर बोला "तुम मुझे सबसे ज़्यादा प्यार करती हो न?"
वह उसे पुचकार कर अपनी गोद में समाते हुए बोली .." हाँ, सबसे ज़्यादा"
वह फिर दुविधात्मक नज़रों से देखता हुआ बोला.."पापा से भी ज़्यादा??"
वह एक क्षण को सोच में पड गयी- "क्या कहे?" उसने तो कभी तौल कर नहीं देखा कि वह किसको ज़्यादा प्यार करती है -किसको कम!! ये बच्चे और उसका पति ही तो उसके दिलो-दिमाग में हर समय समाए रहते है। वह उसे झकझोरता, डूबते से स्वर में कह उठा -" मैं समझ गया -तुम पापा को ज़्यादा प्यार करती हो।"
वह उसके फूले हुए गालों को चूमते हुए बोली-" तू तो पगला है!"
वह और क्षुब्ध हो उठा.."तू???अब तुम मुझे "तू" कह रही हो? मैंने क्या गल्ती की है जो मुझे "तू" बोला?"
वह हैरान हुई " गल्ती की क्या बात ? 'तू' तो प्यार में कहते हैं मैं तुझे बहुत प्यार करती हूँ तो 'तू' कहा!!"
"नहीं, नहीं.." वह समझाने और लडने दोनो की समवेत मुद्रा में था। " 'तू' तब कहते हैं जब कोई गंदा हो या लडता हो या रिक्शा चलाता हो, मैंने क्या किया जो मुझे "तू"कहा?"
" यह किसने बताया?" वह चकित थी।
"फिल्मों में यही होता है। जब लडते हैं तो ;तू' कहते हैं। मुझे 'तू' नहीं बोलो, तुम बोला करो"
"अच्छा-अच्छा, तुम कहूँगी पर एक बात बताऊँ, फिल्मॆं गलत कहती हैं। 'तू' तो बहुत प्यारा शब्द है। याद है वह भजन जो मैंने सुनाया था-कृष्ण जी अपनी मम्मी को भीप्यार से 'तू' कहते थे" वह लडियाने के से मीठे स्वर में बोली।
" तो मैं भी तुमको 'तू' बोलूँ?" उसने हठ से तन कर पूछा।
" नहीं, 'आप' की जगह तो 'तुम' बोलता है, अब 'तू' बोलेगा..??" उसने झिडक सा दिया।
उसे उसकी यही बात अच्छी नहीं लगती। हर बात में बराबरी करता है।भई, तुम छोटे हो तो छोटे बन कर रहो।पर नहीं, पता नहीं इस देश के टी.वी. यह सब सिखाते हैं या स्कूल की पढाई या साथी बच्चे!! यहाँ यह बराबरी की बातें ही बच्चों को ज़ुबान चलाना सिखा देती हैं, हम लोग बोल के तो देखते ऐसे भारत में, वो झाड पडती कस कर
कि बराबरी का सब भूत उतर जाता। वो शायद थोडी देर और चिढी सी यही सब सोचती रहती पर उसे कहाँ चैन था।
संधि करने की मुद्रा में बोला.." ठीक है फिर तुम भी मुझे 'तुम' ही बोलो...प्रौमिस??..” वह अपनी तर्क शक्ति पर मुग्ध था।
" ठीक है, ठीक है, बात खत्म करो अब!"
" ठीक है" ..वह शांत हो कर उससे और चिपट सा गया। दो मिनट भी शांति से नहीं बीते होंगे कि उसने नए सवाल के साथ अपना सिर उठा कर पॄछा.." तुम आपरेशन क्यों कराना चाहती हो?" वह गंभीर था।
" बेटा, कराना ज़रूरी है, नहीं होता ज़रूरी तो थोडे ही न कराती" उसने सामान्य स्वर में कहा।
" पर तुम्हारे पैर में दर्द होगा,तुम्हारे पैर में पट्टी बँधी होगी तुम चल भी नहीं पाओगी, बिस्तर पर लेटे लेटे परेशान हो जाओगी"-वह कुछ परेशान दिखाई दे रहा था।
" हाँ, वह तो होगा पर तुम जो होगे मेरे साथ" उसने अपनी घबराहट छुपाने की कोशिश की, सच तो यह था कि आपरेशन से वह भी घबरा रही थी पर कोई और चारा भी तो नहीं था। कई बार आदमी अपने ही हाथों कितना लाचार हो जाता है, अपने ही शरीर द्वारा सीमित कर दिया जाता है। उसका मन भी तो जाने कहाँ- कहाँ भागता
फिरता है पर पैर जैसे एक भी कदम उठाने से इन्कार कर देते हैं..अब मन और शरीर की लडाई रोक कर वह शरीर को मन के अनुकूल बनाने की कोशिश कर रही है तो कुछ तो दर्द उठाना पडेगा ही..बस यही अपने मन को समझाती है और यही उसे समझाने का प्रयास कर रही है।
" मैं तो होऊँगा पर दर्द तो तुम्हें होगा, फिर तुम्हें ऐनस्थेसिया भी तो "सूट" नहीं करता। तुम्हें उल्टियाँ होंगी, तुम्हें चक्कर आऎंगे, तुम्हारे पैरों में कितना दर्द होगा?...नहीं... नहीं, तुम आपरेशन मत कराओ.." वह रुआँसा हो कर उसकी गर्दन से लिपट गया। अपना मुँह उसके गाल और कँधे के बीच छुपा कर वह जैसे सब कुछ से बचने की कोशिश करने लगा।
वह मौन उसकी पीठ सहलाने लगी। जानती है कि भय भी शुरूके कुछ क्षण ही डराता है फिर मन उस डर के कंपन का आदी होने लगता है और डरावनी चीज़ें दूसरी बार देखने पर उतनी डरावनी नहीं लगतीं। कुछ क्षणों के बाद वह स्वयं ही कुछ ढीला पडा तब उसे अपने से अलग करते हुए वह बोली.." आपरेशन नहीं कराया तो घुटने और
पीठ सब में दर्द होने लगेगा, फिर चलने में भी तकलीफ़ होगी....कुछ सालॊं बाद कराने से तो और मुश्किल होएगी..समझा न?"
उसने 'न' में सिर हिला दिया। छोटा सा तो है, जो समझेगा वह अपनी बुद्धि के माप से ही तो समझेगा.. हर आदमी का वही हाल है चाहे वह बडा हो या छोटा।
वह फिर उस से लिपटने लगा था.." तुम समझती क्यों नहीं..तुम्हें इतना ढेर सा दर्द एक साथ सहने की ज़रूरत क्या है..जैसे थोडा- थोडा रोज़ सह रही हो वैसे ही सहती रहो न..." वह उसकी मनुहार सी कर रहा था, अनजाने दर्द से डरा हुआ, वह उसे उसके परिचित, थोडॆ दर्द को सहने की बात करता हुआ जैसे वह अपनी उम्र से बहुत बडा
हो गया था।
वह विस्मित थी। छोटा सा बच्चा दर्द के मापदंड की बात कैसे जान गया, कैसे दर्द का हिस्सा बाँट कर रहा है..दर्द के बडे तूफ़ान से माँ निकले, यह उसे स्वीकार नहीं था इसलिए वह छोटे दर्द रोज़ झेल ले....य़ही तो वह चाहता है....ऐसा ही तो होता है हम सब के साथ, विकल्प हो तो हम हमेशा छोटा दर्द ही तो चुनते हैं..जीवन में कितनी ही बार सही जान कर भी बडे दर्दों से बचने की कोशिश में रहते हैं और यथास्थिति बनी रहती है..छोटे दर्द अपनी नोंक से हमें कुरेदते रहते हैं ..और तब तक कुरेदते रहते हैं जब तक की वे नासूर न बन जाएँ..और जब वे नासूर बन जाते हैं तब हम उन बडॆ दर्दों के जबाब ढूँढते हैं।
वह भी तो कितने ही छोटे दर्दों के साथ रोज़ रहती है..उसमें बडा दर्द झेलने की ताकत कहाँ है..सबकी तरह वह भी तो यथास्थितिवादी है..जब तक काम चले तब तक चलाओ...यानि स्थिति बदलने की बजाए उन्हें अनदेखा कर दो। यही करते- करते तो उसने कितने ही छोटे-छोटे दर्द जमा कर लिए हैं। अब उसे इन स्वीकृत छोटे दर्दों के
साथ ही रहना होगा चाहें ये दर्द उसे धीरे-धीरे भीतर से खोखला ही क्यों न कर दें।
बडे दर्द सब ठीक कर देने की संभावना के साथ आते हैं और छोटे दर्द रोज़ का रोना लेकर। स्थिति बदलने की आशा जगाते हैं बडे दर्द जबकि छोटे दर्द जैसे जीवन का हिस्सा बन कर ही बैठ जाते हैं..इन्हें हटाने का प्रयास भी हम नहीं करते और न इन्हें भूल पाते हैं....जीवन की अनचाही किरकिराहट हैं ये छोटे दर्द...कर्र-कर्र करती, दुखती हड्डी के रोग जैसे....पर बडे दर्द का बडा महत्त्व है, इनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती, इन्हॆं ले कर जिया नहीं जा सकता, इनका निदान करना ही पड्ता है। इस से भागा भी नहीं जा सकता, भागा जाना चाहिए भी नहीं। इस बच्चे को अभी से दर्द का स्वीकार भाव किसने दे दिया..किसने उसे बडे दर्द से भागने का पाठ पढा दिया। क्या वह उसके अपने मन का ही कायर अंश ही तो नहीं था जो उसके दूध से होकर बच्चे की रगों तक पहुँच गया था? क्या ऐसे ही यथास्थितिवादियों की पीढी बनती है? ये पीढी ही क्या बडे होकर दर्द की मापतौल कर के आसान रास्तों के सौदे नहीं करेगी? वह कुछ घबरा सा गई..अनजाने में वह बच्चे में कौन से संस्कार डाल रही है?...वह उसे कायर बनने में मदद नहीं कर सकती, उसे आवश्यक बडे दर्दों का सामना करना सिखाना ही होगा।
वह प्यार से बोली...." नहीं बेटा..छोटे दर्द हमेशा तो नहीं सहे जा सकते ..कभी- कभी बडॆ दर्द ज़रूरी होते हैं..समझे? और फिर थोडे ही दिनों की तो बात है ..मैं तुम्हारे साथ फिर से खेल पाऊँगी..फिर हम सैर को जाया करेंगे..दूर तक.." वह उसका माथा सहलाने लगी थी....उसकी अपनी आँखों में इस दर्द के प्रति आश्वस्ति का भाव जाग रहा था। बच्चे ने माँ के चेहरे पर कुछ नया, रुपहला, जागता देखा।
वह मुग्ध सा देखता रहा..कुछ क्षण ..फिर बोला.." सच कहती हो..खेल सकोगी मेरे साथ? घूमने जाओगी दूर तक??"
" हाँ सच, एकदम सच"..वह मुस्कुरा दी।
" पर तुम्हारा दर्द..??" नयी पीढी का नया बच्चा, एकदम कैसे संतुष्ट हो जाए?
" अब दर्द को छोडो, जब होगा तब सह लेंगे..उससे घबरा कर जीना थोडॆ ही ना छोड देंगे"..वह हँस कर बोली।
अपनी आयु से ज़्यादा बडी बातें करने वाला वह भी कभी- कभी उसकी बात नहीं समझ पाता..कुछ हैरानी से वह उसका मुँह ताकता सा बैठा रह गया।
वह उसे गुदगुदाते हुए बोली..." समझे बुद्धूमल!!"
" अब मुझे बुद्धू कह रही हो...देखो तो...क्या क्या कहती रहती हो मुझे जबकि मैं कितना अच्छा हूँ" वह उससे फिर लिपटने लगा था।
" अच्छा कितना अच्छा है देखूँ तो.." कह कर उसने भी उसे कस कर चिपटा लिया और बहुत दिनों बाद वह खुल कर मुस्कुरा दी
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2 comments:
बहुत ही सुन्दर, वात्सल्य और बच्चे का माँ के प्रति प्रेम. जो कहना चाहता हूँ शायद शब्द नहीं मिल रहा - बच्चा माँ का अंश है तो माँ भी बच्चे का अंश ही तो हुई। अगर एक को पीड़ा है तो उसकी अनुभूति से दूजा कैसे अनछूआ रह सकता है। बहुत ही सुन्दरता के साथ यह भाव उभर कर सामने आता है और दिल को छूता है। माँ और बच्चे के वार्तालाप स्वाभाविक और और सच्ची तस्वीर उकेरता है। बहुत सुन्दर!!
शैलजा जी,
कहानी अच्छी लगी। कहानी में आये संवाद मोहन राकेश की कहानियों के संवाद की याद दिलाते से लगते हैं - नपे-तुले, संतुलित और आधुनिक लेकिन नये परिप्रेक्ष्य में।
बराबरी और स्पर्धा की भावना सबमें बराबर होती हैं, मां-पुत्र के बीच का यह संघर्ष कहानी को नया आयाम प्रदान करता है।
दर्द को जीवन से जोडकर देखने का दर्शन भी प्रभावी है।
सादर,
अमरेन्द्र
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