Wednesday, October 15, 2008

जो रात के धागे में नींदों ने पिरोये
वे स्वप्न मेरी आँख की नियति बन गए
जगने के हर पल में सजते हैं आँखों में
उनींदे से मेरे भाग्य की स्मिति बन गए!
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टटका सा चम्पा का कोई फूल झरा है
अँधेरे के आँचल पर अक्षर सा सजा है
कहती ही रही रात, स्याह मैं बहुत
कितनी ही रौशनियों से आँचल तो सजा है।
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वो नाराज़ भी मुझ से खुश भी बहुत है
रह भी नहीं सकता कुछ पल मेरे बिना
वो ज़िद में है अपनी, मैं रहूँ न मैं
जानता क्या होगा मेरा, मेरे बिना??
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ये वक्त की है बात, कुछ मैंने कहा है
रिश्तों में सभी के कुछ ऎसा ही हुआ है
डर लाँघ कर चाहत, आती है सामने
कल तुमने कहा था आज मैंने कहा है।
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